सोनल चौरे, इंदौर। साल 2009 से अभी तक 2 बार अस्थमा अटैक का सामना कर चुकी राखी अग्रवाल (44) पेशे से एडवोकेट हैं और बीते 22 साल से रोजाना इंदौर में भारी ट्रैफिक के बीच से गुजरते हुए कोर्ट पहुंचती हैं। वे साल 1998 से कोर्ट जा रही हैं। अग्रवाल बताती हैं, “बीते 13 साल से अपने फेफड़ों का इलाज करा रही हूं। डॉक्टरों ने कहा है कि वाहनों के प्रदूषण के कारण फेफड़े बुरी तरह से प्रभावित हो चुके हैं।”
वे बताती है कि वायु प्रदूषण के कारण सिर्फ फेफड़े ही नहीं, बल्कि त्वचा से संबंधित भी कई दिक्कतें उन्हें झेलनी पड़ी हैं। राखी अग्रवाल का इलाज करने वाले अस्थमा विशेषज्ञ डॉ. प्रमोद झंवर का भी कहना है, “वायु प्रदूषण के कारण मरीज की हालत बेहद चिंतनीय हो गई है और अब उन्हें हमेशा बेहद सावधानी रखनी होगी।”
ऐसी ही परेशानियां नई पीढ़ी की वर्किंग गर्ल्स को भी झेलना पड़ रही हैं। 24 साल की विभूति मालाकार पेशे से सेल्स मैनेजर हैं। बीते तीन साल से वह रोज ही ऑफिस आने-जाने के दौरान करीब एक घंटा वाहनों के धुएं में गुजरती है और इस कारण उन्हें आंखों में जलन और सिर दर्द की समस्या है। फिलहाल विभूति का इलाज चल रहा है। विभूति के मुताबिक, “वाहनों के धुएं के कारण ही मुझे यह समस्या हो रही है।”
दरअसल, राखी अग्रवाल और विभूति मालाकार महज ऐसे दो उदाहरण हैं, जिनके माध्यम से कामकाजी महिलाओं के दर्द को उभारा है। वाहनों से होने वाले वायु प्रदूषण के दुष्प्रभावों को लेकर इंदौर शहर में अक्टूबर-नवंबर 2022 के 75 से ज्यादा कामकाजी महिलाओं का सर्वे करके यह जानने का प्रयास किया कि आखिर इंदौर में वाहन प्रदूषण से वे कितनी प्रभावित हैं और कैसे इस समस्या का मुकाबला करती हैं। यह सर्वे Earth Journalism Network के सहयोग से किया गया।
सर्वे के मुताबिक 76.7 फीसदी कामकाजी महिलाओं को काम पर आने-जाने के दौरान वाहनों से निकलने वाले धुएं के कारण तकलीफों का सामना करना पड़ता है। हालांकि 15.1 फीसदी महिलाओं का मानना है कि खराब सड़कों के कारण धूल से भी इंदौर में वायु प्रदूषण हो रहा है, जिससे स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां हो रही है।
सर्वे में शामिल सिर्फ 8.2 फीसदी कामकाजी महिलाओं का कहना है कि इंदौर में फैक्ट्रियों के कारण वायु प्रदूषण हो रहा है। हालांकि 79.5 फीसदी से ज्यादा वर्किंग वुमन का मानना है कि जिस प्रकार इंदौर स्वच्छता में लगातार नंबर-1 बन रहा है, वैसे ही यदि वाहनों के प्रदूषण को कम करने के लिए भी प्रयास करें तो यहां की हवा का काफी शुद्ध किया जा सकता है।
इंदौर की कामकाजी महिलाओं में से करीब 37.5 फीसदी का कहना है कि उन्हें रोज कम से कम 1 घंटे का समय वाहनों के प्रदूषण के बीच रहना ही पड़ता है। वहीं स्ट्रीट वेंडर का काम करने वाली कुछ ऐसी महिलाएं भी हैं, वाहनों के धुएं के बीच 4 घंटे से ज्यादा का समय बिताती है। सर्वे में ऑफिस, फील्ड वर्क, स्ट्रीट वेंडर के साथ-साथ फैक्ट्री में काम करने वाली महिला कर्मचारियों की भी राय ली गई थी।
चौंकाने वाली बात यह है कि 47.9 फीसदी महिला कर्मचारी ऐसे स्थान पर काम करती है, वहां लगातार वाहनों का धुआं या वाहनों के कारण शोर बना रहता है। सिर्फ 17.8 फीसदी महिलाओं का कहना था कि उन्हें अपने कार्यस्थल पर किसी तरह का वाहन उत्सर्जन सहन नहीं करना पड़ता है।
वाहन उत्सर्जन के बीच में से रोज आने-जाने या कुछ घंटे भी काम करने के कारण इसका सीधा बुरा असर महिलाओं के स्वास्थ्य पर होता है। वाहनों के धुएं से निकलने वाली दूषित गैसों के कारण महिलाओं की इम्युनिटी कमजोर हो जाती है। 47.9 फीसदी कामकाजी महिलाओं का भी कहना है कि मौसम में थोड़ा भी बदलाव होने पर खुद को कमजोर महसूस करती है।
सर्वे में शामिल 31.9 फीसदी महिलाओं का कहना है कि वाहनों के धुएं के कारण उन्हें आंखों में जलन होती है। वहीं कुछ महिलाओं ने सांस लेने में दिक्कत, नींद नहीं आने के साथ-साथ सिर दर्द जैसी समस्याओं का भी जिक्र किया।
जब कामकाजी महिलाओं से पूछा गया कि क्या वाहन उत्सर्जन के कारण ही उन्हें ये शारीरिक समस्या हो रही है तो 47.9 फीसदी महिलाओं ने इसे ही जिम्मेदार माना।
चौंकाने वाली बात ये हैं कि रोज वाहनों के प्रदूषण से गुजरने वाली कामकाजी महिलाएं शारीरिक समस्या के लिए वाहन उत्सर्जन को जिम्मेदार तो मानती है, लेकिन सांस लेने दिक्कत होने, नींद नहीं आने या सिर दर्द जैसी परेशानी के लिए कभी डॉक्टर को नहीं दिखाती हैं। सर्वे के मुताबिक 77.4 फीसदी कामकाजी महिलाओं ने माना कि उन्होंने कभी डॉक्टर से संपर्क नहीं किया। सिर्फ 14.5 फीसदी महिलाओं ने माना कि वाहनों के धुएं से परेशानी होने पर उन्होंने डॉक्टर से अपना चेकअप कराया था।
इस पर इंदौर की स्त्री रोग विशेषज्ञ डॉ. इशिता गांगुली का कहना है कि कई बार महिलाएं वाहनों के प्रदूषण से होने वाले प्रभाव को सामान्य समझकर नजरअंदाज कर देती हैं, लेकिन यदि आपको सांस लेने में दिक्कत हो, चिड़चिड़ाहट होना, नींद पूरी न होना, थकान, सीने में दर्द, बहुत पसीना आता हो तो तत्काल डॉक्टर से संपर्क करना चाहिए। इसे नजरअंदाज करना भविष्य में बड़ी मुसीबत खड़ी कर सकता है।
सर्वे में पाया गया है कि रोज ऑफिस या काम पर जाने के दौरान धुएं या धूल से बचने के लिए 58.1 फीसदी महिलाएं स्कार्फ बांधना ही पसंद करती है। सिर्फ 19.4 फीसदी महिलाएं ही धुएं से बचने के लिए मास्क पहनती है। 12.9 फीसदी महिलाएं तो न स्कार्फ बांधती है और न ही मास्क पहनती है।
वहीं महिला रोग विशेषज्ञ इशिता गांगुली का कहना है कि स्कार्फ बांधना कुछ हद तक सहायक हो सकता है लेकिन यह पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। उन्होंने कहा कि कोरोना काल के दौरान बाजार में बहुत अच्छी क्वालिटी के मास्क भी आ गए हैं। यदि महिला रोज ही काम के दौरान वाहनों के धुएं से होकर गुजरती है तो उन्हें पूरी सुरक्षा के लिए मास्क ही पहनना चाहिए।
एनवायर्नमेंटल डिफेंस फंड (ईडीएफ), एन्वायर्नमेंटल एपिडेमियोलॉजिस्ट डॉ. अनन्या रॉय का कहना है, “अगर आपको घर से बाहर जाना है, तो एन95 या के95 मास्क का इस्तेमाल करना चाहिए। ये मास्क पहनने से वायु प्रदूषण को रोकने और सांस के जरिए भीतर जाने वाली प्रदूषित वायु को कम करने में मदद मिल सकती है।” ईडीएफ इंदौर में यू.एस. एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट के सहयोग से चलाए जा रहे क्लीन एयर कैटलिस्ट प्रोजेक्ट की प्रमुख भागीदार संस्थाओं में से एक है।
अस्थमा विशेषज्ञ डॉ. प्रमोद झंवर के मुताबिक वाहनों के धुएं में CO, NO2, SO2, CO2 और SC जैसी घातक गैस निकलती है, जिसके कारण आंखों में जलन, दमा, नींद नहीं आना और सिर दर्द जैसी प्रारंभिक स्वास्थ्य समस्याएं देखने को मिलती है। डॉक्टर झंवर के मुताबिक इंदौर में 90 फीसदी वायु प्रदूषण कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड जैसी गैसों के कारण ही होता है।
महिला स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. इशिता गांगुली का कहना है इंदौर में वाहन प्रदूषण एक बड़ी समस्या है। साल दर साल वाहनों की संख्या बढ़ रही है। वर्किंग ऑवर में सभी एक साथ निकलते हैं, ऐसे में वाहनों का प्रदूषण बढ़ जाता है। डॉ. इशिता के मुताबिक वाहनों के धुएं में CO, NO2, SO2, CO2 और SC जैसी घातक गैसें होती है। ये महिलाओं के स्वास्थ्य को बुरी तरह से प्रभावित करती है।
साल दर साल शहर में बढ़ते वाहनों के कारण 2005 के बाद से शहर की हवा बिगड़ गई है। जिस तेजी से इंदौर विकास की बुलंदियों को छू रहा है, उसी रफ्तार में शहर की हवा भी दमघोटू होती जा रही है। प्रदूषण से हर कोई प्रभावित होता है लेकिन महिलाओं को तुलनात्मक रूप से ज्यादा मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
इंदौर शहर की आबादी जिस तेजी से बढ़ रही है, उसमें वर्किंग वुमन की भी बड़ी आबादी है और उन्हें वायु प्रदूषण सहित कई दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। हाल ही में इंदौर स्वच्छता में लगातार छठी बार देश का सबसे स्वच्छ शहर बना है, लेकिन यहां हवा शुद्ध नहीं हो पाई है। ऐसे शहर की गंदी हवा के बीच इंदौर की महिलाओं के अपने काम के लिए घरों से निकलना पड़ता है।
इंदौर में हवा की क्वालिटी लगातार बिगड़ रही है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक इंदौर देश के उन 37 शहरों में शुमार है जहां 2017 से 2021 के बीच वायु प्रदूषण बढ़ा है। प्रदूषण बोर्ड के आंकड़े भी यही गवाही दे रहे हैं। साल 2021 की तुलना में साल 2022 में प्रदूषण बढ़ा है। हालांकि फाइन पार्टिकुलेट मैटर (PM 2.5) की मात्रा में कमी आना राहत की बात है। देश के सबसे स्वच्छ शहर इंदौर में वायु प्रदूषण को कम करने के संस्थागत प्रयास भी हो रहे हैं।
क्लीन एयर कैटलिस्ट (सीएसी) के प्रोजेक्ट लीडर कौशिक राज हजारिका के मुताबिक, “इंदौर प्रशासन ने ठोस अपशिष्ट प्रबंधन में सराहनीय काम किया है और नागरिकों और सफाई कर्मचारियों को शामिल करना इस सफलता के मूल में है। अब उन्हें वायु प्रदूषण और स्वास्थ्य पर इसके हानिकारक प्रभावों के बारे में भी जागरूक होने की आवश्यकता है।
इंदौर नगर निगम के सहयोग से सीएसी ने वायु प्रदूषण बीते दिनों जागरूकता कार्यशालाओं का आयोजन किया है। आने वाले वर्ष में इस तरह के और कार्यक्रमों के जरिए उन लोगों जागरूक करने के प्रयास किए जाएंगे जो वायु प्रदूषण के जोखिमों का सबसे ज्यादा सामना करते हैं।” कौशिक का मानना है कि ऐसे प्रयास निरंतर चलते रहने चाहिए।
इंदौर में वाहनों से होने वाले प्रदूषण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि 35 लाख की आबादी वाले शहर में अधिकांश लोगों के पास अपने निजी वाहन हैं। यह चौंकाने वाला खुलासा हाल ही में मप्र मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन से कराए गए एक कॉम्प्रिहेंसिव मोबिलिटी सर्वे में हुआ है। इस सर्वे के मुताबिक इंदौर शहर में कुल वाहनों में 85.2 फीसदी निजी वाहन हैं, वहीं 8.9 फीसदी वाहन पब्लिक ट्रांसपोर्ट, ऑटो, आई बस, सिटी बस आदि हैं। इसके अलावा बाकी 3.5 फीसदी वाहन मालवाहक वाहन हैं।
(This story was produced with the support of Internews’ Earth Journalism Network)
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